युग पुरूष चाणक्य द्वारा रचित सम्पूर्ण चाणक्य नीति भारतीय इतिहास एवं संस्कृति की एक ऐसी अनमोल धरोहर है जिसका एक बार अध्ययन कर लेने के बाद व्यक्ति न केवल अपने कार्य क्षेत्र पर चलने का सही मार्ग प्राप्त कर लेता है वरन् अपने व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास भी कर सकता है।
पहला अध्याय
मूर्ख शिष्य को पढाने से, दुष्ट स्त्री का भरण पोषण करने से और दुखीजनों के साथ व्यवहार करने से विद्वान मनुष्य भी कष्ट उठाता है।
व्याख्या- मूर्ख शिष्य को उपदेश देने, दुष्ट और कुलटा स्त्री का भरण पोषण करने तथा दुखी व्यक्तियों के संग में रहने से बु़िद्धमान व्यक्ति को भी कष्ट हो सकता है। चाणक्य ने यह स्पष्ट किया है कि मूर्ख शिष्य को अच्छी बात के लिये प्रेरित नहीं करना चाहिये। इसी प्रकार दुष्ट आचरण वाली स्त्री का संग करना भी सही नहीं है और दुखी व्यक्तियों के पास बैठने उठने और समागम से बुद्धिमान पुरूषों को भी कष्ट उठाना पड़ सकता है।
((2))
आचार्य चाणक्य कहते है कि कड़वे वचन बोलने वाली और दुराचारिणी स्त्री, पत्नि धूर्त मित्र तथा मुहंफट नौकर औकर और जहां सांप रहता हो, ऐसे घर में रहना निःसंदेह मृत्यु के समान ही है।
व्याख्या- आचार्य चाणक्य बताते है कि जिस आदमी की स्त्री दुष्ट व दुराचारिणी हो, जिसके मित्र नीच स्वभाव के हो और नौकर चाकर बात बात में जबाव देने वाले हो, कहना न मानते हो और जिस घर में सांप रहता हो, ऐसे घर में रहना वाला मनुष्य निश्चय ही मृत्यु के करीब रहता है। यादि ऐसे व्यक्ति की मृत्यु किसी भी वक्त हो सकती है।
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आचार्य चाणक्य का कहना है कि आपत्तिकाल के लिये धन की रक्षा करें, धन से अधिक स्त्री की रक्षा करें और सदा स्त्री तथा धन से अधिक स्वयं की रक्षा करनी चाहिये।
व्याख्या- समझदार मनुष्य को चाहिये कि बुरे वक्त के लिये धन का संग्रह और उसकी रक्षा करें। धन से भी अधिक पत्नी की रक्षा करनी चाहिये। मगर धन और स्त्री से भी अधिक अपनी रक्षा करनी चाहिये, क्योंकि अपना ही नाश हो जाने पर धन और स्त्री का क्या लाभ ?
व्यक्ति को अपनी सभी वस्तुओं की रक्षा करनी चाहिये मगर यदि इन सबकी रक्षा करते करते उसकी जान पर आ पड़े, तो उसे सबसे पहले अपनी रक्षा करनी चाहिये।
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आचार्य चाणक्य कहते है कि आपत्तिकाल के लिये विपत्ति निवारणार्थ धन की रक्षा करनी चाहिये। श्रीमानों, धनवानों वैभवशालियों पर आपत्ति कब आती है ? कभी दुर्भाग्य वश सम्पत्ति, धन वैभव चला जाता है, यदि ऐसी बात है तो संचित धन भी नष्ट हो जाता है।
व्याख्या- संसार के अनेक प्राणी आपत्तिकाल को सुख से बिताने के लिये उपभोक्ता सामग्री का संचय करते रहते है। यही उनकी सम्पत्ति होती है। चीटियां बरसात आने से पहले ही अपने बिलों में अन्न का भण्डार इकट्ठा कर लेती है, ताकि बाहर जब जल थल एक हो जाता है और बाहर निकलने में मुश्किल होती है तो वे सुख से बैठकर उसका उपभोग कर सकें। परन्तु वे नहीं जानती की कब पानी की लहर उनके संचित भण्डार को नष्ट कर देगी। इस बात का अर्थ यह नहीं है कि लक्ष्मी के चलायमान होने के कारण व्यक्ति उसका संचय ही न करें। व्यक्ति को ऐसा प्रयास करना चाहिये कि वह अपने कर्मो से लक्ष्मी को स्थिर रूप से अपने पास रखने में समर्थ हो सकें।
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जिस देेश मेें न तो आदर सम्मान है, न आजीविका प्राप्ति के साधन हैं, न बंधु बांधव है और न ही किसी विद्या की प्राप्ति की संभावना है, ऐसे देश को त्याग को देना चाहिये, ऐसे स्थान पर निवास नहीं करना चाहिये।
व्याख्या- यह तो बहुत सहज अनुभव की बात है कि प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि मनुष्य के रूप में उसे मान सम्मान की प्राप्ति हो। और नहीं तो वह जो कुछ भी कार्य करता है, उसे दृष्टि में रखते हुये उसके अनुरूप उसका आदर किया जाये। यह एक बहुत सामान्य बात है। प्रत्येक व्यक्ति के मन में ऐसी इच्छा समय समय पर बलवती भी हो उठती है। यदि उसका किसी देश अथवा स्थान पर सम्मान न होगा, वहां रोजगार न होगा अथवा भाई बंधु न रहते होंगे, तो वह वहां रहना उचित नहीं समझेगा।
व्याख्या- बहुत से व्यक्ति ऐसे होते है जिन्हें निश्चय होता है कि अमुक कार्य कर सकते है अथवा उनके द्वारा किसी कार्य का होना संभव है, परन्तु वे ऐसे कार्य के पीछे भागते हैं, जिसके संबंध में उन्हें किसी प्रकार का निश्चय नहीं होता, अर्थात् उन्हें संदेह होता है कि संभवतः जो कार्य हम करना चाहते है, वह पूर्ण न हो। अथवा उनकी सामर्थ से परे हो। ऐसी स्थिति में ऐेसे व्यक्ति उस कार्य से भी वंचित रह जाते है जिसके संबंध में उन्हें पूर्ण होने की आशा रहती है, जबकि वह कार्य तो नष्टप्रायः होता ही है जोकि अनिश्चित व सामथ्र्य से परे है।
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आचार्य चाणक्य कहते है कि धनवान, वेदज्ञ, ब्राम्हण, धार्मिक और न्यायशील राजा कृषि की सिंचाई के लिये नदी और पांचवा वैद्य जहां ये पांच विद्यमान न हों उस स्थान पर एक दिन भी नहीं रहना चाहिये।
व्याख्या- जिस देश में धनी मानी व्यापारी कर्मकाण्ड को मानने वाले पुरोहित ब्राम्हण, शासन व्यवस्था में निपुण राजा, सिंचाई अथवा जल की आपूर्ति के लिये नदियां और रोगों से रक्षा के लिये वैद्य आदि न हों यानि जहां पर ये पांचो सुविधायें प्राप्त न हो, ऐसी जगह पर मनुष्य को एक दिन के लिये भी रहना नहीं चाहिये।
((7))
जहां आजीविका व्यापार, दण्डभय, लोक लाज चतुरता और दान देने की प्रवृत्ति ये पांच बाते न हो वहां नहीं रहना चाहिये।
व्याख्या- मनुष्य को उसी स्थान पर रहना चाहिये जहां लोगों में ईश्वर, लोक और परलोक में आस्था हो। जहां सामाजिक आदर की भावना हो, जहां नीच प्रकार का काम करने में संकोच और लज्जा हों, त्याग की भावना हो, ऐसे स्थान पर ही बुद्धिमान व्यक्ति को रहना चाहिये। जहां ये पांच बातें न हों, वहां के लोगों का साथ न करें।
((8))
कार्य में नियुक्त करने पर नौकरों की दुख आने पर बांधवांे की, विपत्ती काल में मित्रों की और धन नष्ट होने पर स्त्री की पहचान होती है।
व्याख्या- आचार्य चाणक्य कहते है कि काम में लगाने अथवा कार्य उपस्थित होने पर नौकरों की पहचान होती है, दुख आ पड़ने पर बंधु बांधवों की पहचान होती है और संकट, आपत्ति के अवसरों पर मित्र की पहचान होती है, तथा धन का नाश होने पर स्त्री की परीक्षा होती है।
((9))
सच्चे बंधु का परिचय देते हुए बताया गया है कि मनुष्य को अपने व्यवहार से ऐसे बंधु बांधव बनाने चाहिये जो अंतिम समय तक साथ दें। समय पर साथ देने वाले ही सच्चे अर्थो में साथी होते है।
व्याख्या-रोगी होने पर, दुख आ पड़ने पर, अकाल पड़ने पर, शत्रु से संकट उपस्थित होने पर, राजसभा में या अदालत में और मृतक के साथ श्मशान में जो साथ देता है, वही सच्चा बंधु है।
((10))
जो मनुष्य निश्चित पदार्थ या भोगादि को छोड़कर, अनिश्चित वस्तु या भोग्य पदार्थ के लिये, उनकी प्राप्ति का प्रयत्न करता है, उसके निश्चित पदार्थ, भोग अथवा कार्य भी नष्ट हो जाते है, बिगड़ जाते है और अनिश्चित पदार्थ, भोग, कार्य आदि तो अप्राप्त ही हैं।
व्याख्या- बहुत से व्यक्ति ऐसे होते है जिन्हें निश्चय होता है कि अमुक कार्य कर सकते है अथवा उनके द्वारा किसी कार्य का होना संभव है, परन्तु वे ऐसे कार्य के पीछे भागते हैं, जिसके संबंध में उन्हें किसी प्रकार का निश्चय नहीं होता, अर्थात् उन्हें संदेह होता है कि संभवतः जो कार्य हम करना चाहते है, वह पूर्ण न हो। अथवा उनकी सामर्थ से परे हो। ऐसी स्थिति में ऐेसे व्यक्ति उस कार्य से भी वंचित रह जाते है जिसके संबंध में उन्हें पूर्ण होने की आशा रहती है, जबकि वह कार्य तो नष्टप्रायः होता ही है जोकि अनिश्चित व सामथ्र्य से परे है।
आगे के श्लोक जल्दी ही अपडेट हो जायेगे............
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